कन्या'दान' या कन्या'मान'?

 हमारा मानना है कि समाज को प्रगतिशील बनाने में विज्ञापन बहुत अहम् भाग निभाते है। हिन्दू-मुस्लिम एकता, नारी-शक्ति आदि विषयों पर कई अच्छे-अच्छे विज्ञापन आए है, जो हमें सोचने पर प्रेरित करते है और सामजिक बदलाव लाने में सफल भी होते है। किन्तु हाल ही में हमने एक विज्ञापन देखा जिसने हमें यह लेख लिखकर, कुछ भ्रांतियां मिटाने पर प्रेरित किया।

 

हम में से कितने लोग ऐसे हैं जो वाकई परम्पराओं का अर्थ जानकार उन्हें निभाते हैं? बहुत कम। अधिकतम लोग भेड़-बकरी की चाल चलते है- 'हमारी दादी करती थी, हमारी माँ करती है और इसलिए हमें भी करना चाहिए' के भाव से परम्पराओं का निर्वाह करना मूढ़ता है, भेड़-चाल से ज्यादा कुछ नहीं। बदलते समय के साथ परम्पराएं बदलनी चाहिए यह सत्य है, किन्तु हमारी सभ्यता की कुछ परम्पराएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक एवं उचित है कि इन्हे बदलकर अपने-आप को प्रगतिशील दर्शाने का प्रयत्न तुच्छ है।

 

आपने मान्यवर (परिधान ब्रांड) का कन्यादान पर प्रसारित वह विज्ञापन तो देखा होगा, जिसमे अभिनेत्री आलिया भट्ट द्वारा भांति भांति की बातें कही गई है जैसे- “कन्या कोई धन नहीं है, कन्या कोई दान करने की चीज है क्या? कन्या'दान' नहीं बल्कि कन्या'मान' होना चाहिए।“

 

ऐसा कहने वालों से हम केवल ये जानना चाहते है कि वे लोग धन की परिभाषा कैसे करते है? क्यूंकि धन का अर्थ केवल पैसा, संपत्ति, रूपया नहीं होता। धन का एक अर्थ होता है - वो जो अत्यंत प्रिय हो, स्निग्ध हो, जिसपर बहुत स्नेह हो। संस्कृत-हिंदी शब्दकोष में धन का शाब्दिक अर्थ बताया है- संपत्ति, दौलत, निधि, रूपया, सोना, आदि।  इसी पुस्तक में धन का दूसरा अर्थ बताया है- कोई प्रियतम एवं स्निग्धताम पदार्थ- उदाहरण के लिए पुत्रधन, मान धन, विद्या धन, संतोष धन। कहते है ना.. विद्या धानम सर्व धन प्रधानम, या ये भी कहा जाता है- 'जब आवै संतोष धनम, सब धन धुरी सामान', अर्थात जब संतोष का धन आता है तो बाकी सारे धन धूल की भाँती प्रतीत होते है। भगवान का नाम भी धन है- पायो जी मैंने नाम (राम) रतन धन पायो। इसलिए कन्या को धन कहने में कोई आपत्ति नहीं है। क्यूंकि वह माता-पिता का सर्वश्रेष्ठ 'धन' है, वह उन्हें अपने प्राणों से भी प्रिय होती हैं। 

 

दूसरी बात जो इस विज्ञापन में कही गई है वह यह है कि कन्या कोई दान में देने की 'वस्तु' है क्या? तो यदि कोई ऐसा समझें कि दान केवल वस्तुओं का या भीख में देने वाली छोटी-मोटी चीज़ों का होता है तो हम यह भ्रान्ति भी मिटा दें.. क्यूंकि दान तो बड़े से बड़े तत्त्व का होता है- विद्या दान - बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही- ऋषि विश्वामित्र ने श्री राम को विद्या का भंडार दिया था। रक्त दान को महादान कहा जाता है, यदि आप किसीकी जान बचाएँ तो वह प्राण-दान या जीवन दान कहलाता है। अभय दान एवं पुत्र दान का भी वर्णन पुरातन काल से प्रसिद्ध है। महाभारत प्रथम खंड-आदिपर्व, अध्याय ८२ कहता है - 'दुष्करम पुत्रदानम च आत्मदानं च दुष्करम' अर्थात पुत्रदान (पुत्र को दत्तक देना) बहुत कठीन है।

 

तो हमारी संस्कृति में कन्यादान और पुत्रदान- दोनों का ही वर्णन मिलता है। इसलिए यहाँ यह समझना जरुरी है कि सर्वोच्च दान वही है जब दान में अपना सर्वोत्तम प्रिय तत्त्व दान किया जाएं। तभी तो शास्त्रों में कन्यादान को महापुण्य कहा गया है। अपने जी-जान से भी अधिक प्यारी पुत्री को जब अपने सुख के लिए न रखके, माता-पिता किसी और परिवार के उद्धार के लिए दान करते है, तो उनसे बड़ा 'दानी कर्ण' कलियुग में नहीं हो सकता।

 

तिसरी बात जो मान्यवर के विज्ञापन में श्रीमती आलिया भट्ट ने कही है... यह कि कन्यादान नहीं, कन्यामान होना चाहिए। तो देवीजी, ये बताइये कि कन्यादान क्या कन्या का अपमान है? कन्यादान के समय जो मंत्र पढ़ते है, आइयें, उसका भाव जानतें है...

'दाताहम वर्णो राजा, द्रव्यमआदित्य दैवतं, वरोसौ विष्णुरूपेण, प्रतिघृणा त्वयं विधि'। यहाँ, दाता यानी देने वाले माता- पिता कि तुलना वरुण देव से की गई है, कन्या को सूर्य के सामान दर्शाया है और वर यानी जिसे दान दिया जा रहा है उसे विष्णु भगवान बताया गया है। कन्यादान से यहाँ सूर्योदय की ओर संकेत किया जा रहा है। समुद्र (वरुण देव का वास) से सूर्य आकाश (विष्णु भगवान का स्थान) में जा रहा है। अब चूँकि विवाह एक नए जीवन का प्रारम्भ है, और सूर्योदय एक नए दिन का प्रारम्भ है, कन्यादान को सूर्योदय का रूपक दिया गया है। इसमें कन्या का मान बढ़ाया ही गया है, ये मानकर कि वह सूर्य की तरह ही अपने तेजोमय प्रकाश से सभी का उत्थापन करेगी।


कन्यादान के पीछे बहुत दिव्य भाव है, इसमें कन्या का कोई अपमान नहीं है बल्कि कन्यादान कन्या मान ही है, अतः 'कनयमान होना चाहिए' ये कहकर एक प्रगतिशील सोच लाने का दिखावा करने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। हमारी संस्कृति और परम्पराएं स्वयं ही हमेशा से सर्वोच्च सोच का प्रदर्शन करती आई है। बस, कुछ नासमझ लोग उसे समझ नहीं पाते हैं, और कुछ बिना समझें ही अनुसरण किये जा रहे है।

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